
दोस्तों बेंजामिन नेतनयाहू की फैमिली और इसराइली फौज यानी आईडीएफ के बीच अब खुलकर टकराव हो चुका है और ये टकराव अब सबके सामने आ गया है। बेटे यायर नेतनयाहू के बाद अब बीवी सारा नेतनयाहू भी आईडीएफ चीफ ऑफ स्टाफ यानी इयाल जामिर के खिलाफ जमकर जहर उगल रही है। आप JFeed की खबर देख लीजिए। दुनिया के और भी अखबारों में यह खबर छपी है और ये खबर 7 अगस्त की है। इसराइली चैनल 12 के रिपोर्टर यारोन अवराहम के मुताबिक सारा नेतनयाहू ने हाल ही में एक प्राइवेट बातचीत में कहा, “मुझे पहले से पता था कि आईडीएफ चीफ इयाल जामिर मीडिया के दबाव को नहीं झेल पाएगा। मैंने अपने शौहर बेंजामिन को साफ मना किया था कि इसे आईडीएफ चीफ की कुर्सी मत दो।” ये जुबानी हमला तब हुआ जब 5 अगस्त को खुद यायर नेतनयाहू ने आरोप लगाया था कि इयाल जामिर फौजी तख्ता पलट की साजिश कर रहा है। सारा नेतनयाहू पहले भी जामिर को लेकर नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं। मई महीने में बेंजामिन नेतनयाहू की लिकुड पार्टी के कुछ लोगों से सारा ने कहा था — क्या आपने चीफ ऑफ स्टाफ को देखा है? वो होस्टेजेस की वापसी को हमास की शिकस्त से ज्यादा अहम मान रहा है। यानी उनके हिसाब से बंधकों को वापस लाना इस युद्ध को जीतने से भी ज्यादा जरूरी है। सारा ने तब यह भी कहा था कि जामिर की सोच दरअसल कापलान स्ट्रीट के प्रदर्शनकारियों जैसी है। कापलान स्ट्रीट, तेल अवीव की वो जगह है जहां महीनों से सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। सारा का इशारा था कि इयाल जामिर उन विरोधियों के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है। और अब उनके बेटे यायर का भी दावा है कि डिफेंस मिनिस्टर योआव गैलांट की ज़िद पर जामिर को टॉप पोस्ट दी गई, जबकि बेंजामिन खुद किसी और को चीफ बनाना चाहते थे। यानी दोस्तों, नेतनयाहू फैमिली की ये बयानबाज़ी आईडीएफ की लीडरशिप के साथ रिश्तों में गहरी दरार का सबूत है। वो भी ऐसे वक्त में जब गाजा पर फुल-स्केल रीऑक्यूपेशन यानी दोबारा मुकम्मल कब्ज़े का आर्डर जारी हो सकता है। लेकिन दोस्तों मैंने पहले भी बताया था — आईडीएफ इस फाइनल ऑपरेशन को लेकर हिचकिचा रही है। क्योंकि अगर गाजा पर मुकम्मल कब्जा करने की कोशिश हुई, तो इस्राइली फौजियों की जानें जा सकती हैं, और तादाद सैकड़ों में हो सकती है। यही वजह है कि इयाल जामिर गाजा पर कब्जे के खिलाफ हैं। और यही वजह है कि अब बेंजामिन नेतनयाहू की फैमिली उन पर टूट पड़ी है। डिफेंस मिनिस्टर योआव गैलांट कह रहे हैं कि जामिर को सरकार के हुक्म मानने ही होंगे। यानी आईडीएफ और सरकार आमने-सामने आ चुके हैं। सरकार एयर-कंडीशनर कमरों में बैठकर फैसले लेती है, जबकि आईडीएफ फील्ड में है। उसे पता है गाजा में क्या होने वाला है अगर सब कुछ कब्जे में लेने की कोशिश की गई।

चलिए अब गाजा में भूख और तबाही का वो मंज़र समझते हैं जो वहां के लोग हर रोज़ झेल रहे हैं। सबसे पहले बात करते हैं वर्ल्ड फूड प्रोग्राम यानी WFP की, ये वही तंजीम है जो गाजा में लोगों को खाना पहुंचाने की ज़िम्मेदारी निभा रही है। जो भी मदद मिस्र या बाकी अरब मुल्कों से पहुंच रही है, उसमें से कुछ रास्ते में लुट जाती है, कुछ इन तंजीमों के पास पहुंचती है और फिर उन्हें यह कोशिश करनी होती है कि एक कम्युनिटी किचन में गरमा गरम खाना बनाकर लोगों तक पहुंचाया जाए ताकि भूख से तड़प रहे लोगों को कम से कम पका हुआ खाना मिल जाए। इन किचनों के पास फ्यूल भी होता है, स्टाफ भी होता है, लेकिन अब उनके पास कच्चा सामान खत्म होता जा रहा है। हाल ही में इस तंजीम ने एक वीडियो जारी किया, जिसे हम यहां नहीं दिखा सकते लेकिन जो उसमें कहा गया वो बहुत डरावना है। उन्होंने साफ-साफ लिखा है कि गाजा की कई फैमिलीज़ ऐसी हैं जो कई-कई दिन से बिना खाना खाए ज़िंदा हैं। मां-बाप नामुमकिन से फैसले ले रहे हैं, अपने बच्चों को जिंदा रखने के लिए। वो खुद खाना नहीं खा रहे ताकि उनके बच्चों का पेट भर सके। कुछ माएं खुद भूखी रह रही हैं लेकिन अपने बच्चों को रोटी दे रही हैं। यहां तक कि अपनी सिक्योरिटी को भी कुर्बान कर रहे हैं। यानी वो वहां जाकर खाना ला रहे हैं जहां हर वक्त मौत का साया है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम और उसके तमाम सपोर्टर्स ने साफ कहा है कि वो हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं लेकिन जो ज़रूरत है उसके मुकाबले में ये मदद समंदर के सामने एक बूंद के बराबर है। उनका कहना है कि अगर फूड एड की बाढ़ नहीं लायी गई तो गाजा में भुखमरी की सुनामी आएगी। लेकिन इस्राइल पूरे पैमाने पर राहत की इजाजत नहीं दे रहा। मिस्र के बॉर्डर पर अभी भी हजारों ट्रक खड़े हैं लेकिन उन्हें पास नहीं दिया जा रहा। इस्राइल ने सिर्फ सौ ट्रकों को मंज़ूरी दी है और वो भी पूरी तादाद में अंदर नहीं जा पा रहे। इसलिए गाजा की भूख अब खत्म नहीं हो रही। अगर इन हजारों ट्रकों को एक साथ गाजा में घुसने दिया जाए और ये इजाजत सिर्फ अमेरिका दिलवा सकता है, तो यकीन मानिए एक दिन में गाजा की भुखमरी खत्म हो सकती है। लेकिन क्या अमेरिका ये करेगा? क्या दुनिया ये दबाव बनाएगी? या सब चुप रहेंगे? दोस्तों, जब कोई भूख से मर रहा हो और हम खामोश रहें तो याद रखिए – इतिहास सिर्फ नेताओं को नहीं, खामोश रहने वालों को भी माफ नहीं करता।

अब ज़रा सोचिए ग़ज़ा के बाजारों में क्या हाल है, जब खाने को कुछ नहीं है और जो है उसकी कीमतें आसमान छू रही हैं। World Food Programme ने एक ग्राफिक जारी किया जिसमें दिखाया गया है कि ग़ज़ा में चीज़ों की कीमतें जंग शुरू होने के बाद कितनी तेजी से बढ़ी हैं। यह डाटा 27 जुलाई से 30 जुलाई 2025 के बीच का है। जंग से पहले जो चीनी सिर्फ 89 सेंट्स यानी लगभग एक डॉलर से भी कम में मिलती थी, वही चीनी अब 106 डॉलर में बिक रही है। आप खुद सोचिए, एक डॉलर से भी कम की चीज़ अब 106 डॉलर की हो गई है। और अगर इसे भारतीय रुपये में कन्वर्ट करें, तो आप कीमतों का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते। अब बात करें प्याज की — जो पहले सिर्फ 59 सेंट्स का था, अब वही प्याज 34 डॉलर में बिक रहा है। टमाटर पहले मिलते थे 59 सेंट्स में, अब हो चुके हैं 30 डॉलर किलो। आलू की बात करें, तो पहले 25 डॉलर किलो था, अब 30 डॉलर किलो बिक रहा है। और ये सब बेसिक चीजें हैं जिनके बिना इंसान जी नहीं सकता। आटे का हाल देखिए — 25 किलो का बोरा पहले सिर्फ 10 डॉलर का आता था, अब वही बोरा 35 डॉलर का हो गया है। खीरे पहले 2 डॉलर किलो मिलते थे, अब 14 डॉलर किलो बिक रहे हैं। डीज़ल की कीमत पहले थी लगभग 1.87 डॉलर प्रति लीटर, अब 36 डॉलर पर लीटर बिक रहा है। साबुन पहले आधे डॉलर में मिल जाता था, अब 10 डॉलर में मिल रहा है। बच्चों के डायपर्स का एक पैक, जो पहले 8.61 डॉलर में आता था, अब 19 डॉलर में बिक रहा है। यानी एक बेसिक ज़रूरत की चीज़ जो हर घर के लिए ज़रूरी है, अब दो गुने से भी ज़्यादा कीमत पर बिक रही है। फायरवुड यानी जलावन लकड़ी की बात करें तो पहले 15 सेंट्स में मिल जाती थी, अब कई डॉलर में बिक रही है। खाने का तेल पहले 2.5 डॉलर में था, अब 25 डॉलर हो गया है। चावल पहले 2.5 डॉलर में मिलते थे, अब 20 डॉलर किलो बिक रहे हैं। बच्चों का दूध यानी बेबी फॉर्मूला 400 ग्राम पहले 4 डॉलर का था, अब 51 डॉलर में मिल रहा है। और सबसे नीचे महिलाओं के लिए सेनिटरी टॉवल्स – पहले 10 का पैक सिर्फ 0.5 डॉलर में आता था, अब वही 5 डॉलर का हो चुका है। ये वो कीमतें हैं जो किसी जंग के मैदान में नहीं, इंसानी बस्तियों में चल रही हैं। ये हालात जिंदा इंसानों के लिए नहीं, क़ैद इंसानों के लिए होते हैं। और इस भूख की जेल का नाम है ग़ज़ा।
अब आइए बात करते हैं ग़ज़ा में जो राहत का सामान पहुंच रहा है उसका इस्तेमाल कैसे हो रहा है। दोस्तों, वहां जो भी मदद आती है — चाहे वो मिस्र से आए, जॉर्डन से आए या कहीं और से — वो सिर्फ यूं ही फ्री में बांटने के लिए नहीं आती। उसका एक बड़ा हिस्सा कम्युनिटी किचन में जाता है। वहां खाना बनाकर लोगों को गरमा गरम दिया जाता है ताकि लोगों को पेट भरने के लिए सड़ा गला, बासी या सूखा खाना ना खाना पड़े। और हां, कुछ राहत का सामान बाजारों तक भी जाता है। क्यों? ताकि जिन दुकानों में कुछ सामान बचा है, जो दुकानदार बचा हुआ कारोबार कर रहे हैं, वो पूरी तरह बर्बाद ना हो जाएं। ग़ज़ा की पूरी इकॉनमी मर चुकी है, लेकिन बाजारों को पूरी तरह से बंद नहीं किया जाता क्योंकि बाजारों की सांसें चलती रहनी चाहिए। जो लोग थोड़े बहुत पैसे दे सकते हैं, उनके लिए सामान बाजार में मौजूद हो। ऐसा नहीं है कि हर कोई राहत लाइन में खड़ा हो। और इसी बीच कुछ लोग राहत में मिले सामान को भी बेच दे रहे हैं। ब्लैक मार्केटिंग भी हो रही है। कई लोग जो सामान मुफ्त में मिलता है, उसे ऊंचे दामों में बेच देते हैं और मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। दुकानदार भी मजबूरी में ऊंचे दाम वसूल रहे हैं क्योंकि उन्हें दूसरी जगह से सामान मंगवाना पड़ता है, कई बार चोरी-छुपे, खतरा उठाकर। कोई कुछ नहीं कह सकता क्योंकि ये हालात ही ऐसे हैं। लेकिन इन सबके बीच आपको समझना होगा कि ग़ज़ा के बाजारों की जो हालत है, वो इंसानी दर्द की सबसे बड़ी मिसाल बन चुकी है। ये सिर्फ महंगाई की बात नहीं है, ये उस सिस्टम की बात है जो एक इलाके को सांस लेने की इजाजत नहीं दे रहा। वहां की ज़िंदगी, वहां का कारोबार, वहां के बच्चे, सब कुछ धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है — और दुनिया सिर्फ देख रही है।
तो दोस्तों, ये थी ग़ज़ा की वो हकीकत जिसे सुनकर दिल दहल जाता है और ज़मीर कांप उठता है। एक तरफ इसराइल की हुकूमत और फौज के बीच सियासी खींचतान है, दूसरी तरफ ग़ज़ा की सड़कों पर इंसानियत दम तोड़ रही है। आईडीएफ और नेतनयाहू फैमिली के बीच जो टकराव है, वो सिर्फ सत्ता की कुर्सी और फैसलों की ज़िद का नतीजा है। लेकिन ग़ज़ा में जो हो रहा है, वो इंसानी जिंदगियों के साथ हो रहा है — भूख, प्यास, महंगाई, तबाही और मौत। और ये सब अब भी जारी है। ये लड़ाई सिर्फ बमों और गोलियों की नहीं है, ये जंग अब पेट और इज्जत की है। और सबसे खतरनाक बात ये है कि इस पूरी तबाही को रोकने की चाबी जिनके हाथ में है, वो सिर्फ तमाशा देख रहे हैं। अमेरिका अगर चाहे, तो एक दिन में ग़ज़ा की भुखमरी खत्म हो सकती है। लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या हम सिर्फ दुआ करते रहेंगे या अब कुछ करेंगे भी? मेरे जैसे लोग जो बहुत छोटे चैनल्स से हैं, कम सब्सक्राइबर्स और सीमित संसाधनों के साथ — अगर हम झोली फैला कर भी मदद मांगें, तो महीने भर में इतना ही जुड़ पाएगा जिससे सिर्फ कुछ परिवारों का तीन-चार दिन का राशन ही पूरा हो पाए। तो सोचिए, जिनके पास ताकत है, पहुंच है, आवाज़ है, वो क्या नहीं कर सकते? मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि जो कर सकते हैं — ज़रूर करें। मदद सिर्फ पैसा देने का नाम नहीं है। सही जानकारी फैलाना, दूसरों को रास्ता दिखाना, भरोसेमंद माध्यम बताना — ये भी मदद है। और हां, जो लोग आज भी नेगेटिविटी फैला रहे हैं, दूसरों पर सवाल उठा रहे हैं, उन पर भी एक नजर डालिए — क्या उन्होंने खुद कुछ किया? ग़ज़ा में आज हर उस आवाज़ की ज़रूरत है जो ज़मीर से निकले, और हर उस हाथ की ज़रूरत है जो किसी भूखे पेट तक खाना पहुंचा सके। इसलिए मैं आप सबसे कहता हूं — जो भी मुमकिन हो, करिए। क्योंकि जब इतिहास लिखा जाएगा, तो वो सिर्फ लड़ने वालों को नहीं, खामोश रहने वालों को भी याद रखेगा। अल्लाह आपको सलामत रखे, खुश रखे। मेरी वालिदा की तबीयत अभी भी नाज़ुक है, दुआओं की दरख्वास्त है। मिलते हैं अगले ब्लॉग में, तब तक अलविदा, फिअमानिल्लाह।
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