
आज हम जिस ख़बर पर बात कर रहे हैं, वो सिर्फ़ ग़ज़ा या फलस्तीन की नहीं है — ये पूरे मिडिल ईस्ट की फ़िज़ा को बदल देने वाली ख़बर है। इस्राईल की सिक्योरिटी कैबिनेट ने एक ऐसा फैसला पास किया है, जो न सिर्फ़ इस इलाक़े को बल्कि आने वाली नस्लों को भी बर्बादी के कगार पर ले जा सकता है।
इस फ़ैसले के तहत अब इस्राईल ग़ज़ा के पूरे इलाके पर ‘टेकओवर’ करेगा — यानि सिर्फ़ कब्ज़ा नहीं, बल्कि पूरा शिकंजा। प्रधानमंत्री नेतनयाहू इसे हमास के खिलाफ़ जंग बता रहे हैं, लेकिन अंदर की कहानी कुछ और है।
जहां एक तरफ़ नेतनयाहू ये कह रहे हैं कि पांच डिविज़न की फौज ग़ज़ा सिटी में भेजी जाएगी और पांच महीनों में पूरा इलाका काबू में होगा, वहीं दूसरी तरफ़ इस्राईली आर्मी के चीफ़ खुलकर चेतावनी दे रहे हैं कि अगर ऐसा हुआ तो एक भी बंधक ज़िंदा नहीं बचेगा।
असल में, इस पूरे ऑपरेशन की बुनियाद ही बंधकों की रिहाई पर रखी गई थी। लेकिन अब जब फौज के भीतर से ही विरोध की आवाज़ें उठ रही हैं — अफसर इस्तीफ़े की धमकी दे रहे हैं, सिपाही मानसिक रूप से टूट चुके हैं, आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं — तो ये साफ़ है कि जंग के नाम पर एक बड़ा सियासी ड्रामा खेला जा रहा है।
नेतनयाहू का दावा है कि वो ग़ज़ा पर कब्ज़ा करेंगे लेकिन वहां नई बस्तियां नहीं बसाएंगे — बल्कि इलाके को किसी ‘अंतरराष्ट्रीय संस्था’ के हवाले कर देंगे। सवाल ये है कि क्या सऊदी, जॉर्डन या मिस्र जैसे मुल्क इस बर्बादशुदा इलाके की ज़िम्मेदारी लेंगे? जवाब है — नहीं। ये सब एक ख़ूबसूरत मुखौटा है, जिससे दुनिया की आंखों में धूल झोंकी जा रही है।
इस पूरे फ़ैसले में सबसे बड़ी चालाकी ये है कि ‘कब्ज़ा’ जैसे शब्द से बचते हुए ‘टेकओवर’ का इस्तेमाल किया जा रहा है। ताकि क़ानूनी और सियासी बहसों में इसका मतलब हल्का पड़े। लेकिन ज़मीनी सच्चाई ये है कि अगर इस्राईल ग़ज़ा में पूरी तरह घुसता है, तो उसे सिर्फ हमास से नहीं — ग़ज़ा की पूरी अवाम से टकराना होगा।

नेतनयाहू का मक़सद ग़ज़ा पर कब्ज़ा करना नहीं है — उनका मक़सद अपनी सियासी कुर्सी बचाना है। अंदरूनी विरोध, गिरती लोकप्रियता और अफ़सरों की खुली बगावत के बीच वो जंग को एक “राष्ट्रीय मिशन” के तौर पर पेश कर रहे हैं। यही वजह है कि बंधकों के परिवारों को गद्दार कहा जा रहा है, सवाल उठाने वालों को देशद्रोही ठहराया जा रहा है।
इसी सियासी स्क्रिप्ट में वो एक ऐसा ‘टेकओवर’ लिख रहे हैं जो सिर्फ़ ग़ज़ा की तबाही नहीं लाएगा — बल्कि इस्राईल की आत्मा को भी झकझोर देगा।
ग़ज़ा कोई आम इलाक़ा नहीं है। ये वो जमीन है जहां हर घर के नीचे सुरंगें हैं, हर दीवार के पीछे जज़्बा है, हर आंख में इंतक़ाम की चिंगारी है। वहां की अवाम लड़ना जानती है — और वो किसी एक लीडर से नहीं, अपने हक़ से वाबस्ता है।
अगर इस्राईल ने ग़ज़ा को “टेकओवर” कर लिया, तो यक़ीन मानिए — वो जमीन से तो कब्ज़ा कर लेगा, लेकिन दिलों पर कभी नहीं। और यही बनेगा नए बग़ावत का बीज — जो हमास से भी आगे, और ज़्यादा संगठित हो सकता है। फिर ये आग ग़ज़ा से निकलकर लेबनान, सीरिया और ईरान तक फैल सकती है।
सबसे ख़तरनाक पहलू ये है कि इस पूरे ऑपरेशन से बंधक नहीं बचेंगे — जिनके नाम पर ये जंग शुरू हुई थी। इस्राईली जर्नलिस्टों तक ने कह दिया है कि हमास बंधकों को मारने के लिए नहीं लाया था, मगर अब जब ग़ज़ा जल रहा है, तो बंधकों की ज़िंदगी भी दांव पर है।
और जब ये सब ख़त्म होगा — तब दुनिया पूछेगी:
“इस सबका ज़िम्मेदार कौन था?”
“क्या ये जंग ज़रूरी थी?”
“क्या इससे कुछ हासिल हुआ…?”
जवाब होगा — सिर्फ़ बर्बादी।
और एक ऐसा नासूर, जो सदियों तक रिसता रहेगा।
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